Monday, 18 November 2013

पेड़-पौधों से उत्पन्न होगी बिजली

by:- डॉ. गणेश कुमार पाठक
यह बात सुनने में बड़ी ही विचित्र लग रही है कि अब हरे-भरे पेड़-पौधों से बिजली कैसे प्राप्त की जा सकती है। किंतु यह बात सच है और इसे सच कर दिखाया है भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के वैज्ञानिक डॉ. शिव प्रसाद कोष्टा ने।
वैसे डॉ. कोष्टा ने पेड़-पौधों से बिजली प्राप्त करने की संभावनाओं पर अपना प्रयोग एवं शोध सन १९८५ में ही प्रारंभ कर दिया था। जब उन्होंने टेलिविजन एँटिना के रूप में पेड़-पौधें का प्रयोग कर तहलका मचा दिया था। इस प्रयोग से डॉ. कोष्टा काफी चर्चित हुए और संचार माध्यम के रूप में वनस्पतियों के प्रयोग का एक नया विकल्प तैयार किया। अभी भी इस दिशा में उनके द्वारा निरंतर खोज एवं परीक्षण चल रहा है।
डॉ. कोष्टा का कहना है कि प्रत्येक पेड़-पौधा एक छोटा-सा विद्युत गृह है। उनके अनुसार पेड़-पौधों से पर्याप्त बिजली प्राप्त की जा सकती है। सड़कों पर रोशनी हेतु सड़क पर ही लगाये गये हरे-भरे पेड़-पौधे एक छोटा-सा विद्युत गृह हैं। उनके अनुसार पेड़-पौधों से पर्याप्त बिजली प्राप्त की जा सकती है। सड़कों पर रोशनी हेतु सड़क पर ही लगाये गये हरे-भरे पेड़-पौधों से बिजली प्राप्त की जा सकती है। डॉ. कोष्ट का कहना है कि २१ वीं सदी में हमारी विद्युत आवश्यकता का एक प्रमुख स्रोत ये हरे-भरे पेड़-पौधे भी होंगे।

डॉ. कोष्टा ने केवल हरे-भरे पेड़-पौधों से ही बिजली उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त नहीं की है, बल्कि उन्होंने सब्जियों के पौधों से भी बिजली उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त कर ली है। डॉ. कोष्टा ने जिन पेड़-पौधों से बिजली प्राप्त करने में सफलता पायी है उनमें - केला, कैक्टस, गुलाब, अगिया घास, आक, बैगन, आलू, मूली, प्याज, टमाटर, पपीता, हरी मिर्च, अमरूद आदि वृक्ष एवं सब्जियों के पौधे हैं।
विद्युत-प्रवाह पत्तो में -
                 डॉ. कोष्टा ने पेड़-पौधों से विद्युत उत्पन्न करने की प्रेरणा विख्यात वनस्पति शास्त्री वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बोस से प्राप्त की। जगदीश चन्द्र बोस ने भी एक परीक्षण किया था, जिसमें उन्होंने एक कांच के बर्तन में नमक का घोल भरकर एक पत्ते के दो टुकड़े करके उसमें इलैक्ट्रोड की तरह खड़ा कर दिया। पुन: एक सुनहरा तार लेकर उनमें जोड़कर एक संवेदनशील गैलवानमीटर जोड़ दिया। ऐसा करने से मीटर की सुई में कोई हलचल नहीं हुई। इसका मतलब यह था कि उसमें विद्युत प्रवाह नहीं हो रहा था। लेकिन पत्तों के वे इलेक्ट्राड जब सूर्य के प्रकाश में रखे गये तो मीटर की सुई में हलचल होने लगी अर्थात मीटर की सुई विद्युत की प्रवाह की उपस्थिति को प्रकट करने लगी।
विभिन्न पौधों से प्राप्त विद्युत की मात्रा
पेड़/पौधा/ सब्जी वोल्टेज वोल्ट प्रवाह प्रयुक्त इलेक्ट्राड
कैक्टस १.१८ ०.२८ मैग्ने-सीसा
केला १.१६ १.३० मैग्ने-सीसा
अमरूद १.६० ०.१८ तांबा-जस्ता
आक ०.७० ०.१९ तांबा-जस्ता
आलू ०.६५ ०.१७ तांबा-जस्ता
बैंगन ०.७० ०.२० तांबा-जस्ता
प्याज ०.७० ०.१८ तांबा-जस्ता
हरी मिर्च ०.६० ०.१७ तांबा-जस्ता
चुकंदर ०.६५ ०.२२ तांबा-जस्ता
पपीता ०.७० ०.३१ तांबा-जस्ता
मुनगा १.०५ ०.५० मैग्ने-सीसा

जगदीश चन्द्र बोस द्वारा किये गये उपरोक्त प्राथमिक परीक्षण को आधार मानकर ही डॉ. कोष्टा ने अनेक प्रयोग किये। पौधों में फोटो सिंथेसिस की प्रक्रिया के अंतर्गत पौधों की जड़ें भूमि की निचली सतह से जो जल खींचती है वह वातावरण के ताप पर ही अपने रासायनिक अवयवों अर्थात हायड्रोजन का संयोग वातावरण में विद्यमान कार्बन-डाई-आक्साइड से होता है एवं इससे तैयार होने वाला मिश्रण स्टार्च ही इन पौधों के लिए भोजन एवं पोषण का काम करता है।
           उपर्युक्त निष्कर्षों एवं जानकारियों के आधार पर व्यापक प्रयोग करके डॉ. शिव प्रसाद कोष्टा ने प्रसिद्ध किया कि पेड़-पौधों एवं वनस्पतियों से विद्युत प्राप्त करने के लिए सौर बैटरियों की तरह ही बैटरियां तैयार की जा सकती है।
                           डॉ. कोष्टा के अनुसार विभिन्न पौधों से निम्नांकित रूप में विद्युत की प्राप्ति होती है -
डॉ. कोष्टा द्वारा किये गये अथक प्रयासों एवं प्रयोगों से यह तथ्य सामने आया कि पौधों के तनों एवं बाहरी छाल से बनने वाले आयी नमी के छल्ले से विद्युत रासायनिक सेल हेतु विद्युत अपघटक अर्थात इलेक्ट्रो लाइट का काम विधिवत लिया जा सकता है और इस प्रकार हरे-भरे पेड़-पौधों के तने, शाखाओं एवं पत्तों में छोटे से इलेक्ट्राड लगाकर विद्युत की प्राप्ति की जा सकती है।
केले के पत्तों से बिजली
                
डॉ. कोष्टा द्वारा केले के पेड़ के तने एवं पत्तों पर तांबा, जस्ता एवं मैग्नेशियम, सीसे के इलेक्ट्रोड का प्रयोग किया गया और उनसे लगातार तीन घंटे तक एल.ई.डी. (लाइट इमिटिंग डापोड) को जलाया गया। डॉ. कोष्टा ने इस प्रयोग से यह भी निष्कर्ष निकाला कि इलेक्ट्राड पत्ते या तने में जितनी अधिक गहराई तक धंसे होंगे, विद्युत प्रवाह भी उतना ही अधिक होगा।
                         एक अकेले वनस्पति कोष्ट या सेल से उत्पन्न होनेवाली विद्युत धारा में कुछ माइकों एँपीयर्स से लेकर कुछ मिली एँपीयर्स तक का शर्ट सर्किट करेंट होता है एवं उसका ओपल सर्किट व्होल्टेज ०.५ वोल्ट से १.२ वोल्ट तक रहता है। अधिक वोल्टेज या करेंट के लिए कोष्टों को समांतर क्रम में रखकर संबद्ध किया जा सकता है।
                     डॉ. कोष्टा के अनुसार सबसे अधिक अच्छे एवं आशातीत उत्साहवर्द्धक परिणाम कैक्टस प्रजाति के पौधों पर किये गये प्रयोगों से मिला है। डॉ. कोष्टा ने नागफनी जाति के ३८ सेल १९-१९ की समांतर कतारों में एवं पुन: माला अर्थात् सीरीज के रूप में जोड़े। इसके प्राप्त हो रहा विद्युत प्रवाह मल्टी मीटर की सुई के अनुसार २.२ वोल्ट एवं ३५ मिली एँपीयर का था। इस प्रवाह से विद्युत का बल्ब (२ वोल्ट १४ मिली एँपीयर के लिए निर्मित) भी जलता रहा। यही नहीं लाइट एमिटिंग डापोड जलाया गया तो वह भी दो घंटे तक लगातार रोशनी देता रहा। छोटी टार्च के बल्ब को जलाने के लिए १.८ वोल्ट ऊर्जा वनस्पति से प्राप्त करने की सफलता प्राप्त हुई है।
प्रदूषणमुक्त बिजली
               इस प्रकार डॉ. कोष्टा के प्रयोग से प्राप्त सफलता ने विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में संभावनाओं का एक नया द्वार खोल दिया। अब वह दिन दूर नहीं कि इन हरे-भरे पेड़-पौधों से किसी भी मौसम में किसी भी समय बिजली उत्पन्न की जा सकती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि पेड़-पौधों से प्राप्त यह बिजली अत्यंत सहज एवं सर्व-सुलभ है तथा काफी सस्ती एवं प्रदूषण मुक्त भी होगी।
                               डॉ. कोष्टा के पेड़-पौधों से प्राप्त होनेवाली बिजली के इस प्रयोग से न केवल बिजली प्राप्त की जा सकेगी। बल्कि बिजली प्राप्त करने के उद्देश्य से इन पेड़-पौधों को उगाने एवं उनकी वृद्धि एवं विकास को बढ़ाने पर भी विशेष ध्यान दिया जाने लगेगा, जिससे पेड़-पौधों की संख्या में भी वृद्धि होगी और अच्छे-अच्छे पेड़-पौधे तैयार होंगे।
                                 पेड़-पौधों से विद्युत उत्पादन का एक अन्य लाभकारी पहलू यह भी होगा कि इससे जमीन की निचली परत में विद्यमान नमी का भी संकेत प्राप्त होता रहेगा।
     पेड़-पौधों से प्राप्त बिजली का प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में किया जा सकेगा जैसे - घर के बाग एवं अहाते में लगाये गये पेड़-पौधों से रोशनी एवं इंधन के लिए, घरेलू उपयोग हेतु विद्युत की प्राप्ति खेतों की मेड़ों एवं किनारों पर लगाये गये पेड़-पौधों से व्यापक रूप में कल-कारखानों हेतु विद्युत प्राप्त की जा सकती है।

आवश्यकता इस बात की है कि पेड़-पौधों से विद्युत उत्पादान करने हेतु व्यापक स्तर पर प्रयोग किये जाएँ एवं उसका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार किया जाए ताकि ऊर्जा के इस संकट के दौर में इस प्रदुषण मुक्तं, सर्वसुलभ, सहज उत्पादन एवं सस्ते विद्युत का उत्पादन कर विद्युत संकट को दूर किया जा सके। यही नहीं यदि इसका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार हुआ तो इसके प्रति आम जनता का भी झुकाव बढ़ेगा और व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार हुआ, तो इसके प्रति आम जनता का भी झुकाव बढ़ेगा और व्यापक स्तर पर पेड़-पौधे लगाये जाएँगे जिससे पुन: हमारी धरती हरी-भरी हो जाएगी और इस तरह हमारा विद्युत संकट तो दूर होगा ही परिस्थितिकी तंत्र भी सुव्यवस्थित रहेगा।

स्टेम कोशिकाओं में छिपा मानव कल्याण

by:- Dr.Gurudyal Pradip
मस्तिष्क तथा स्पाइनल कॉर्ड में रोग अथवा चोट के कारण घाव से ग्रसित चूहों के रक्त में मानव अम्बेलिकल कॉर्ड के रक्त से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं को मिश्रित करने के बाद यह पाया गया कि ये कोशिकाएँ ऐसे घावों तक पहुँच कर स्नायु तंत्र की नई कोशिकाओं के निर्माण में सहायक हैं तथा इन रोग–ग्रसित चूहों के स्वास्थ्य में कुछ सुधार हुआ है।

अजन्मे मानव–भ्रूण को सुरक्षा कवच प्रदान करने वाले एम्नियॉटिक–द्रव से वैज्ञनिकों ने संभावना युक्त स्टेम कोशिकाओं का पता लगाया है। रक्त से प्राप्त स्टेम सदृश्य कोशिकाओं की सहायता से गंभीर हृदयाघात से पीड़ित चूहों के जैविक क्रिया–कलापों के पुर्नस्थापना में वैज्ञानिकों ने सफलता पाई है। स्टेम कोशिकाओं की सहायता से मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी नामक रोग से ग्रसित चूहों की क़मजोर पड़ती मांसपेशियों को फिर से ठीक करने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली।

वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि उम्र के साथ घटती स्टेम कोशिकाओं की संख्या हमारी धमनियों की मरम्मत में गतिरोध उतपन्न करती हैं– जिसके कारण उनमें आर्थेरोस्क्लेरॉसिस होने लगती है। फलत: धमनियों में रक्त के बहाव में बाधा पड़ती है जो अंतत: हृदयाघात का कारण बन सकती है।
भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के संबंध में चल रहे अनुसंधान के फलस्वरूप वैज्ञानिकों को डायबिटीज़ के कारणों एवं निदान की दिशा में कुछ नए सूत्र हाथ लगने की संभावना है।

चूहे की अस्थिमज्जा की स्टेम कोशिकाएँ अब स्नायुतंत्र की कोशिकाओं में परिवर्तित की जा सकती हैं। वैज्ञानिकों ने पहली बार स्टेम कोशिकाओं से फेफड़े के क्षतिग्रस्त ऊतकों की पुनरोत्पत्ति में सफलता पाई। वैज्ञानिकों ने अब यह समझ लिया है कि मुर्गी के भ्रूणीय विकास के दौरान कान के विकास में संलग्न स्टेम कोशिकाओं को किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है।

ये चंद सुर्खियाँ हैं— विज्ञान जगत के उस हिस्से से जहाँ वैज्ञानिक हम मनुष्यों के स्वास्थ्य के बारे में चिंतन करते रहते हैं एवं अनुसंधान द्वारा इस बात के लिए प्रयत्नशील रहतें हैं कि किस प्रकार जटिल से जटिल समस्याओं का निदान सफलता पूर्वक किया जा सके तथा वर्तमान तकनीकि को परिमार्जित कर हमारी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को और आसानी से सुलझाया जा सके।

उपरोक्त खबरें दे कर– केवल खबर देना ही इस आलेख का उद्देश्य नहीं है बल्कि यहाँ इरादा है–इन खबरों के पीछे की खबर लेना। अगर आप ध्यान से इन खबरों को पढ़ें तो आप पाएँगे कि इन सब में स्टेम कोशिका एक ऐसा शब्द है जो सब जगह आया है। तो आइए– सबसे पहले हम इसी बात की जाँच–पड़ताल कर लें कि ये स्टेम कोशिकाएँ हैं क्या बला एवं वैज्ञानिक क्यों इनके पीछे पड़े हुए हैं। बाद में इन खबरों और इन जैसी अन्य महत्त्वपूर्ण खबरों की खबर भी ली जाएगी।

इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिका का नाम जरूर दिया गया है–परंतु पेड़ के तने से इनका दूर–दूर तक लेना–देना नहीं हैं। ये कोशिकाएँ हमारे–आप के शरीर में–बल्कि यों कहें कि उच्च श्रेणी के सभी जन्तुओं के शरीर में पाई जाती हैं। भ्रूणीय विकास में इनकी भूमिका बड़ी ही महत्वपूर्ण है। इसके साथ – साथ विकसित शरीर में भी विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं के उत्पादन के मूल में यही कोशिकाएँ होती है। इन कोशिकाओं तथा इनके महत्व को समझने के लिए भ्रूणीय विकास की प्रक्रिया का थोड़ा–बहुत ज्ञान आवश्यक है।

भ्रूणीय विकास का प्रारंभ शुक्राणु एवं डिंब के निषेचन से निर्मित युग्मक की उत्पत्ति के साथ ही हो जाता है। युग्मक तुरंत कोशिका विभाजन की प्रक्रिया में संलंग्न हो जाता है और कुछ ही समय में सैकड़ों कोशिकाओं का उत्पादन होता है। इन कोशिकाओं की संरचना तथा कार्यकी में कोई अंतर नही होता। मानव भ्रूण में ये कोशिकाएँ ३ से ५ दिन के अंदर पुनर्व्यवस्थित हो कर एक खोखले गेंद के आकार की ब्लास्टोसिस्ट का निर्माण करती हैं। इस ब्लास्टोसिस्ट में एक स्थान पर लगभग ३० से ३५ कोशिकाओं के एक गुच्छे का निर्माण होता है– जिसे इनर सेल मास कहते हैं। इन कोशिकाओं में भी कोई अंतर नहीं होता है। इन कोशिकाओं को स्टेम कोशिका कहा जा सकता है क्यों कि अब इनके विभाजन के फलस्वरूप सैकड़ों उच्च कोटि की विशिष्ट कोशिकाओं का उत्पादन होता है–जिनकी संरचना एवं कार्यकी में अतंर होता है।

ये विशिष्ट कोशिकाएँ भ्रूणीय विकास के दौरान विभिन्न प्रकार के ऊतकों के निर्माण में सहायक होती हैं। विकासशील भ्रूण के विकसित हो रहे नाना प्रकार के ऊतकों में भी ये स्टेम कोशिकाएँ पाई जाती हैं जो विभाजित हो कर तरह–तरह की विशिष्ट ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण करती हैं, जिनका उपयोग शरीर के विभिन्न अंगों यथा हृदय, फेफड़े, त्वचा आदि या फिर अन्य प्रकार के ऊतकों के निर्माण में होता है।

यही नहीं, वयस्कों के विभिन्न अंगों जैसे अस्थिमज्जा, मांसपेशी, मस्तिष्क एवं अन्य ऊतकों में भी ये स्टेम कोशिकाएँ थोड़ी बहुत मात्रा में पाई जाती हैं। सामान्य अवस्था में ये कोशिकाएँ निष्क्रिय पड़ी रहती हैं परंतु बीमारी अथवा चोट या फिर समय के साथ जीर्णता के कारण जब इन अंगों की ऊतकीय कोशिकाओं का ह्रास होने लगता है, तब ये वयस्क स्टेम कोशिकाएँ हरकत में आती हैं एवं इस अंग विशेष या ऊतक में प्रयुक्त विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं का निर्माण कर क्षतिपूर्ति में सहायक होती हैं। क्यों कि ऊतकीय कोशिकाएँ सामान्यत: कोशिका–विभाजन द्वारा अपने समान नई कोशिकाओं के निर्माण में अक्षम होती हैं।

इन स्टेम कोशिकाओं में तीन विशिष्ट गुण समान रूप से पाए जाते हैं – चाहे ये भ्रूणीय अवस्था की हों अथवा वयस्क शरीर की।
  • पहली बात तो यह कि इनकी संरचना एवं कार्यकी किसी भी साधारण कोशिका के समान होती है। ये किसी भी ऊतक विशेष से मेल नही खाते फलत: ऊतकीय कोशिकाओं के समान किसी विशिष्ट कार्य यथा – लाल रूधिर कोशिकाओं के समान ऑक्सीजन ढोने या फिर मांसपेशीय कोशिकाओं के समान शरीर की गतिशीलता बनाए रखने जैसे कार्योंं में ये संलग्न नहीं हो सकतीं। हाँ– आवश्यकता पड़ने पर कोशिका विभाजन द्वारा विशिष्ट प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं को जन्म अवश्य दे सकती हैं।
  • दूसरी बात – ये स्टेम कोशिकाएँ सामान्य परिस्थितियों में बार–बार कोशिका विभाजन की प्रक्रिया द्वारा अपने ही समान नई कोशिकाओं के निर्माण की क्षमता रखती हैं। इस प्रक्रिया को प्रॉलीफरेशन कहते हैं। प्रॉलीफरेशन से प्राप्त नई कोशिकाएँ भी यदि किसी ऊतक–विशेष के गुणों से युक्त न हो कर स्टेम कोशिकाओं के समान हों तो ऐसी स्टेम कोशिकाओं को –लंबी अवधि तक स्व नवीनीकरण की क्षमता से युक्त कहा जा सकता है।
  • तीसरी बात– आवश्यकता पड़ने पर, परिस्थिति विशेष में, विभेदीकरण (डिफरेंशियेशन) द्वारा ये किसी ऊतक विशेष की कोशिकाओं का निर्माण कर सकती हैं।
हमारे शरीर की सभी कोशिकाएँ–चाहे वे स्टेम कोशिकाएँ हों अथवा इनके विभेदीकरण से निर्मित ऊतकीय कोशिकाएँ हों–सभी का प्रादुर्भाव निषेचित डिंब से होता है। फलत: इनकी जेनेटिक संरचना में कोई अंतर नहीं होता। कोशिका की कार्यकी एवं कार्य–कलापों को संचालित तथा नियंत्रित करने में इनमें पाए जाने वाले जीन्स का हाथ होता है। ये जीन्स कोशिका की आवश्यकतानुसार विशेष प्रोटीन्स के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। ये प्रोटीन्स– कोशिका की संरचना में प्रयुक्त होते हैं या फिर विभिन्न प्रकार के एन्ज़ाइम का कार्य कर कोशिका की कार्यकी एवं क्रिया–कलापों के संचालन में सहायक होते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि किसी भी कोशिका में पाए जाने वाले सभी जीन्स एक साथ क्रियाशील नहीं रहते। स्टेम कोशिकाओं तथा इनके प्रॉलीफरेशन से उत्पन्न अविभेदित कोशिकाओं की संरचना एवं क्रियाकलापों के नियमन के लिए इन कोशिकाओं में जीन्स का एक विशेष समूह कार्यरत रहता है। जब ये कोशिकाएँ विभेदन द्वारा ऊतकीय कोशिकाओं के उत्पादन में संलग्न होती हैं तब जीन्स के कुछ नए समूह सक्रिय हो जाते हैं। अब तक सक्रिय जीन्स में से कई निष्क्रिय हो जाते हैं। ये नए सक्रिय जीन्स ही नए प्रोटीन्स का निर्माण कर स्टेम कोशिकाओं के विभेदीकरण का नियंत्रण करते हैं एवं विभेदित हो रही कोशिकाओं की संरचना तथा क्रिया–कलापों में अपेक्षित परिवर्तन कर ऊतक विशेष के निर्माण में सहायक होते हैं।
आखिर वे कौन सी परिस्थतियाँ एवं कारण हैं जो स्टेम कोशिकाओं में जीन्स–विशेष के समूह को सक्रिय रख कर बिना विभेदित हुए लगातार प्रॉलीफरेट कर अपने ही समान कोशिका निर्माण के लिए उत्तरदाई हैं और फिर अचानक ऐसी कौन सी परिस्थतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो इन जीन्स मे से कई को निष्क्रिय कर देती हैं तथा नए जीन्स–समूह को सक्रिय कर विभेदीकरण द्वारा इन्हें किसी ऊतक–विशेष की कोशिका निर्माण के लिए प्रेरित करती हैं। आज–कल वैज्ञानिकों तथा अनुसंधानकर्ताओं की अभिरुचि स्टेम कोशिकाओं से संबंधित इन्हीं गुत्थियों को सुलझाने में है। भविष्य में इनके विस्तृत अध्ययन से प्राप्त ज्ञान के बल पर भ्रूणीय विकास की जटिलताओं को अच्छी तरह समझा जा सकता है एवं जन्मजात बीमारियों से ले कर क्षतिग्रस्त ऊतकों तथा अंगों की मरम्मत या फिर पूर के पूरे अंग को ही प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
वैज्ञानिक भ्रूणीय तथा वयस्क– दोनों ही प्रकार की स्टेम कोशिकाओं के अध्ययन में लगे हुए हैं। इनके अध्ययन के लिए इन्हें इनके स्रोत से अलग कर प्रयोगशाला में प्लास्टिक की तश्तरियों में विशेष पोषक तत्वों से युक्त कल्चर माध्यम में कृत्रिम रूप से कोशिका विभाजन के उत्प्रेरित किया जाता है। इन तश्तरियों के भौतिक एवं रसायनिक पस्थितियों में तरह–तरह के परिवर्तन कर यह जानने का प्रयास किया जाता है कि किन परिस्थतियों में ये कोशिकाएँ बिना विभेदीकरण के अपने ही समान कोशिकाओं के उत्पादन में संलग्न रहती हैं और कब एवं किन परिस्थियों में विभेदीकरण की प्रक्रिया की ओर उन्मुख हो कर किसी विशेष प्रकार की ऊतकीय कोशिका–उत्पादन की प्रक्रिया में संलग्न हो जाती हैं।

वास्तव में यदि देखा जाय तो स्टेम कोशिकाओं–विशेषकर अस्थिमज्जा में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के रक्त कोशिकाओं के उत्पादन में संलग्न वयस्क स्टेम कोशिकाओं से संबंधित इतिहास लगभग ४० साल पुराना है। १९६० के दशक में ही अनुसंधानकत्ताओं ने इस तथ्य की खोज कर ली थी कि अस्थिमज्जा में दो प्रकार की स्टेम कोशिकाएँ पाई जाती हैं। एक तो हिमैटोपॉइटिक स्टेम कोशिकाएँ–जो सभी प्रकार की रक्त कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम होती हैं और दूसरी बोन मैरो स्ट्रोमल कोशिकाओं का मिश्रित समूह, जिनसे हड्डी–कार्टिलेज–वसा तथा फाइब्रर्स कनेक्टिव ऊतकों की कोशिकाओं का उत्पादन होता है। पिछले ३० साल से इनका उपयोग रक्त कैंसर से पीड़ित रोगियों के अस्थिमज्जा प्रतिस्थापना में किया जा रहा है। १९६० के दशक में ही वैज्ञानिकों ने चूहे के मस्तिष्क में दो ऐसे क्षेत्रों का पता लगा लिया था– जहाँ वयस्क स्टेम कोशिकाएँ पाई जाती हैं तथा विभेदीकरण कोशिका विभाजन द्वारा मस्तिष्क में पाए जाने वाले स्नायुतंत्र की कोशिका–न्यूरॉन्स के साथ–साथ ऑलिगोडेंड्राइड्स तथा एस्ट्रोसाइट्स के उत्पादन में भी सक्षम हैं। इसके पूर्व वैज्ञानिकों का दृढ़ मत था कि वयस्क मस्तिष्क में नई स्नायु कोशिकाओं का उत्पादन नहीं हो सकता।

भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं संबंधित अनुसंधान का इतिहास भी कम से कम २० वर्ष पुराना है। परंतु मानव भ्रूण से संबंधित अनुसंधान कार्य पिछले ४–५ वर्षों से ही हो रहे हैं।वर्षों तक चूहों के भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के विस्तृत अध्ययन के पश्चात् १९९८ में ही हम यह समझ पाए है कि मानव भ्रूण से स्टेम कोशिकाओं को किस प्रकार अलग किया जा सकता है एवं उन्हें प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से कैसे संवर्धित (कल्चर) किया जा सकता है।

मानव भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएँ– डिम्ब के निषेचन के पश्चात् ३ से ५ दिन तक विकास की प्रक्रिया पूरी कर ब्लास्टोसिस्ट की अवस्था में पहुँचे भ्रूण की इनर सेल मास से प्राप्त की जाती हैं। अनुसंधान के लिए स्त्री के गर्भाशय में विकसित हो रहे भ्रूण को न लेकर उसके शरीर से प्राप्त अनिषेचित डिंब को प्रयोगशाला में कृत्रिम रूप से निषेचित कर कल्चर माध्यम में कोशिका विभाजन हेतु अनुप्रेरित किया जाता है। जब ये भ्रूण ब्लास्टोसिस्ट की अवस्था में पहँुच जाते हैं तब इनके इनर सेल मास की कोशिकाओं को अलग कर ऐसी प्रयोगशालाओं को मुहय्या करा दिया जाता है– जहाँ स्टेम कोशिका संबंधी अनुसंधान कार्य चल रहे हों।

इन प्रयोगशालाओं में इनर मास की इन कोशिकाओं को समुचित पोषक तत्वों से युक्त कल्चर माध्यम से भरी प्लास्टिक की तश्तरियों मे स्थानांतरित कर दिया जाता है। इन तश्तरियों के तले पर चूहे के भ्रूण से प्राप्त त्वचा की ऐसी कोशिकाओें का लेप लगाया रहता है जो विभिन्न रसायनों से इस प्रकार उपचारित (ट्रीटेड) रहती हैं कि इनमें कोशिका विभाजन की क्षमता नहीं होती। कोशिकाओं का ऐसा लेप इन तश्तरियों में स्थानांतरित इनर मास की कोशिकाओं के लिए गोंद का काम करती हैं– जिससे ये आसानी से चिपक कर स्थिर हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त चूहे की कोशिकाओं का यह लेप कल्चर तश्तरी में पोषक तत्वों का स्राव कर विभाजित हो रही इनर मास की कोशिकाओं के लिए भोजन के स्रोत का कार्य करता है। हाल ही में चूहे की ऐसी कोशिकाओं के लेप के बिना ही कल्चर तश्तरी में इनर सेल मास की कोशिकाओं के प्रॉलीफरेशन की तकनीकि विकसित कर ली गई है।

ऐसी तश्तरियों में इनर सेल मास की ये कोशिकाएँ कई दिनों तक लगातार विभाजित होती रहती हैं। जब इनकी संख्या पर्याप्त हो जाती है तो इन्हें बड़ी ही सावधानी तथा कोमलता के साथ निकाल कर नई कल्चर तश्तरियों में एक तह के रूप में स्थांतरित कर दिया जाता है। जब इन तश्तरियों में भी इनकी संख्या आवश्यकता से अधिक होने लगती है तो इन्हें पुन: नई तश्तरियों मे स्थानांतरित कर दिया जाता है। स्थानांतरण की इस प्रक्रिया को लगातार कई महीने तक बार–बार दुहराया जाता है जिसे 'सबकल्चरिंग' कहा जाता है। सबकल्चरिंग के एक चक्र को 'पैसेज' का नाम दिया गया है।

लगभग छ: महीने या उससे भी लंबी अवधि तक सबकल्चरिंग के फलस्वरूप इनर सेल मास की मूल कोशिकाओं से, जिनकी संख्या मात्र ३० से ३५ होती है, लाखों भ्रूणीय कोशिकाओं का उत्पादन होता है। चूँकि इनका उत्पादन बिना विभेदीकरण के होता है, फलत: ये सभी कोशिकाएँ विभेदीकरण की क्षमता से युक्त होती हैं एवं सभी प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम होती हैं। ऐसी क्षमता से युक्त इन कोशिकाओं को 'एम्ब्रियॉनिक स्टेम सेल लाइन' के नाम से पुकारा जाता है।

एक बार ऐसी सेल लाइन की स्थापना के बाद इन कोशिकाओं को अति कम तापमान पर फ्रीज कर अन्य प्रयोगशालाओं में भेजा जा सकता है–जहाँ इनका आगे भी कल्चर किया जा सकता है या फिर इन्हें तरह–तरह के अभिनव प्रयोगों में प्रयुक्त कर इनके विभेदीकरण की क्षमता को परखा जा सकता है तथा किन परिस्थितियों में इनसे किस ऊतक विशेष की कोशिकाओं का ऊत्पादन हो रहा है–इस तथ्य का ज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है।

इन भ्रूणीय कोशिकाओं को जब तक विशिष्ट परिस्थितियों में कल्चर किया जाता है तब तक ये बिना विभेदीकरण के अपने ही समान अविभेदित कोशिकाओं का उत्पादन करती रहती हैं–परंतु जैसे ही इन्हें एक साथ एक पिंड के रूप में विकसित हो कर एम्ब्रॉयड बॉडी बनाने का अवसर मिलता है ये कोशिकाएँ विभेदीकरण की प्रक्रिया में स्वत: जुट जाती हैं तथा विभिन्न प्रकार के ऊतकीय कोशिकाओं यथा— मांसपेशी, स्नायुतंत्र आदि की कोशिकाओं का उत्पादन कर सकती है। हालाँकि इस प्रकार की स्वत: विभेदीकरण की प्रक्रिया कल्चर तश्तरियों में विकसित हो रहे स्टेम कोशिकाओं के अच्छे स्वास्थ्य का द्योतक अवश्य हैं– परंतु यह किसी ऊतक विशेष की विशिष्ट कोशिकाओं के उत्पादन का प्रभावकारी तरीका नहीं है।
किसी ऊतक विशेष की विशिष्ट कोशिका के उत्पादन के लिए वैज्ञानिक इन कल्चर तश्तरियों में विकसित हो रहे 'स्टेम सेल लाइन' की कोशिकाओं के विभेदीकरण की प्रक्रिया को, कल्चर माध्यम के रासायनिक संयोजन में या फिर कल्चर माध्यम की सतह में परिवर्तन कर, प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त वे इन कोशिकाओं में नए जीन्स को समावेशित कर स्टेम लाइन की कोशिकाओं को ही संशोधित करने का प्रयास करते हैं।

उदाहरण के लिए यदि हमें डोपामाइन तथा सिरेटोनिन जैसे रसायन का स्राव करने वाली स्नायुतंत्र की कोशिकाओं का उत्पादन करना हो या फिर इन्सुलिन का स्राव करने वाले पैंक्रियाटिक आइलेट्स की कोशिकाओं का– तो सबसे पहले एम्ब्रॉयड बॉडी को आई टी एफ एसएन (इनसुलिन ट्रान्सफॉमिन फाइब्रोनेक्टिन सेलेनियम) से युक्त कल्चर माध्यम में रखा जाता है। फिर इनमें से नेस्टिन पॉजिटिव कोशिकाओं को चुनकर नाइट्रोजन तथा एसिडिक फाइब्रोब्लास्ट ग्रोथ फैक्टर से युक्त दो विभिन्न कल्चर माध्यम में स्थानांतरित कर दिया जाता है। इसमें से एक कल्चर माध्यम में अतिरिक्त रसायन के रूप में लैमिनिन एवं दूसरे में बी २७ मीडिया सप्लिमेंट होता है। लैमिनिन युक्त कल्चर माध्यम की कोशिकाएँ –नेस्टिन पॉजिटिव न्यूरल प्रिकर्सर कोशिकाओं– में विभेदित होने लगती हैं तो बी २७ मीडिया सप्लिमेंट युक्त माध्यम की केशिकाएँ –नेस्टिन पॉजिटिव पैंक्रियाटिक प्रोजीनेटर कोशिकाओं– में। जब न्यूरल प्रिकर्सर कोशिकाओं के कल्चर से एसिडिक फाइब्रोब्लास्ट ग्रोथ फैक्टर को हटा दिया जाता है तो ये कोशिकाएँ डोपामाइन तथा सिरेटोनिन का स्राव करने वाली स्नायु कोशिकाओं मे विभेदित होने लगती हैं–वहीं जब पैंक्रियाटिक प्रोजिनेटर कोशिकाओं के कल्चर से इन्हीं विशिष्ट ग्रोथ फैक्टर को हटा कर निकोटिनेमाइड नामक पोषक तत्व का समावेश किया जाता है तो ये इन्सुलिन का स्राव करने वाले पैंक्रियाटिक आइलेट्स की कोशिकाओं के गुच्छे में विभेदित होने लगती हैं।

यदि वैज्ञानिक इसी प्रकार मानव भ्रूण की स्टेम कोशिकाओं के विभेदन द्वारा सभी प्रकार के विशिष्ट ऊतकीय कोशिकाओं के उत्पादन की प्रक्रिया को सुचारु एवं सुनिश्चित रूप से नियंत्रित कर सकने में सक्षम हो जाएँ, तो भविष्य में ऊतक विशेष की इस प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न कोशिकाओं का प्रत्यारोपण कर नाना प्रकार के रोगों तथा व्याधियों पर आसानी से विजय पाई जा सकती है। पर्किन्सन रोग (शरीर के अनियंत्रित कंपन तथा अकड़न उत्पन्न करने के साथ–साथ गतिशीलता को कम करने वाला रोग), डायबिटिज, इस्पाइनल कॉर्ड में क्षतिग्रस्त स्नायु कोशिकाओं के कारण उत्पन्न मानसिक रोग, डचेन्स मस्क्युलर डिस्ट्रॉफी (एक विशेष प्रकार की मांसपेशीय क्षीणता का रोग) नाना प्रकार के हृदय रोग तथा देखने एवं सुनने की क्षमता का उम्र के साथ ह्रास होने जैसे तमाम रोग इस संभावना के क्षेत्र में आते हैं।

भविष्य में पर्किन्सन रोग के निदान में सबसे पहले सफलता मिलने की संभावना है। यह रोग २ प्रतिशत लोगों में उम्र के साथ डोपामाइन नामक रसायन का स्राव करने वाले विशिष्ट स्नायु कोशिकाओं के क्षय से संबंधित है। जैसा कि आप ने ऊपर पढ़ा, प्रयोशालाओं में भ्रूणीय कोशिकाओं से डोपामाइन का स्राव करने वाली स्नायु कोशिकाओं के उत्पादन की सफल तकनीकि विकसित कर ली गई है। इस प्रकार उत्पादित कोशिकाओं का ऐसे रोगियों में प्रत्यारोपण कर– संभवत: इस रोग से छुटकारा पाया जा सकता है।

यह तो मात्र एक उदाहरण है। इस आलेख के प्रारंभ में झल्कियों के रूप में दिए गए समाचारों की कुछ सुर्खियाँ– इस दिशा में किए जा रहे अनुसंधानों में मिल रही सफलताओं को दर्शा रही हैं। भविष्य के गर्भ में इस प्रकार के अनुसंधानों में अनंत संभावनाएँ छिपी हुई हैं, जो रोग–निदान के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकती हैं।

यही नहीं– प्रयोगशालाओं में स्टेम कोशिकाओं द्वारा उत्पादित विभिन्न प्रकार के ऊतकीय कोशिकाओं का उपयोग नई–नई औषधियों का प्रभाव परखने के लिए भी किया जा सकता है, जिसके फलस्वरूप किसी रोग विशेष से ग्रसित रोगियों या फिर अन्य जन्तुओं का गिनी पिग की तरह उपयोग करने से बचा जा सकता है। साथ ही अधिक विश्वसनीय परिणाम भी प्राप्त किए जा सकते हैं।

वयस्क स्टेम कोशिकाओं को ले कर किए जा रहे अनुसंधान भी इसी दिशा की महत्वपूर्ण कड़ियाँ हैं। वैसे तो वयस्क स्टेम कोशिकाओं की पहचान शरीर के कई अंगों एवं ऊतकों यथा मस्तिष्क, अस्थि, मज्जा, रक्त, रक्त वाहिनियों, अस्थि–पंजर से जुड़ी मांस पेशियों, त्वचा तथा यकृत आदि में की जा चुकी है। फिर भी वास्तव में ये कितने प्रकार के होते हैं तथा और कहाँ–कहाँ स्थित हैं, इस बारे में सही एवं सुनिश्चित जानकारी अभी भी नहीं है। इन कोशिकाओं के बारे में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी वयस्क अंग या ऊतक में ये बहुत ही थोड़ी मात्रा में मिलती हैं तथा वर्षों तक बिना कोशिका विभाजन के सुसुप्तावस्था में पड़ी रह सकती हैं। किसी बीमारी या ऊतकों में चोट के फलस्वरूप सक्रिय हो कर ये उस अंग या ऊतक से संबंधित कोशिकाओं के उत्पादन में संलंग्न हो जाती है।

अस्थिमज्जा तथा मस्तिष्क में पाए जाने वाली स्टेम कोशिकाओं के विभेदीकरण के फलस्वरूप उत्पादित ऊतकीय कोशिकाओं के बारे में पहले ही बताया जा चुका है। इसके अतिरिक्त आहार नाल की इपीथीलियल स्टेम कोशिकाएँ– एबजॉर्टिव–गॉब्लेट–पैनेथ एवं एन्टेरोएन्डोक्रीन जैसी कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम होती हैं। इसी प्रकार त्वचा के इपीडर्मिस की बेसल स्तर तथा हेयर फॉल्किल के आधार में पाए जाने वाली स्टेम कोशिकाएँ क्रमश: किरैटिनोसाइट तथा नए हेयर फॉलिकिल एवं इपीडर्मिस की कोशिकाओं के उत्पादन में सक्षम होती हैं।

अब तक यह सोचा जाता था कि वयस्क स्टेम कोशिकाएँ उसी अंग या ऊतक की कोशिकाओं का उत्पादन करने में सक्षम होती हैं जहाँ वे पाई जाती हैं। लेकिन हाल के प्रयोगों से यह पता चला है कि एक अंग अथवा ऊतक में पाए जाने वाली कुछ विशेष प्रकार की वयस्क स्टेम कोशिकाएँ विशेष परिस्थितियों में अन्य अंगों एवं ऊतकों की कोशिकाओं का उत्पादन भी कर सकती हैं। इन स्टेम कोशिकाओं की इस विशिष्ट क्षमता को –प्लास्टिसिटी– अथवा –ट्रांसडिफरेन्शियशन– की संज्ञा दी गई है। प्रस्तुत हैं ऐसे ही कुछ उदाहरण:

हिमैटोपॉयटिक स्टेम कोशिकाओं से स्नायु तंत्र की न्यूरॉन–ऑलिगोडेन्ड्राइड्स तथा एस्ट्रोसाइट्स जैसी कोशिकाओं से ले कर अस्थि पंजर एवं हृदय की मांसपेशियों तथा यकृति की कोशिकाओं का उत्पादन किया जा सकता है। इसी प्रकार– अस्थि मज्जा की स्ट्रोमल कोशिकाओं से भी अस्थि पंजर तथा हृदय की मांसपेशियों का उत्पादन संभव है और मस्तिष्क की स्टेम कोशिकाओं का उपयोग रक्त में पाई जाने वाली विभिन्न कोशिकाओं तथा अस्थि पंजर की मांसपेशीय कोशिकाओं के विकास में किया जा सकता है।

सीमित विभेदीकरण की क्षमता के बावजूद वयस्क स्टेम कोशिकाओं का प्रत्यारोपण की प्रक्रिया में उपयोग करने का सबसे महत्वपूर्ण लाभ यह होगा कि वयस्क रोगी के शरीर से ही इन स्टेम कोशिकाओं को निकाल कर, इच्छित ऊतकीय कोशिकाओं का उत्पादन कर, उसी रोगी के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकेगा। इस प्रकार प्रत्यापित कोशिकाएँ रोगी के शरीर के प्रतिरोधी तंत्र द्वारा अस्वीकृत भी नही होंगी। जब कि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं से प्राप्त उतकीय कोशिकाओं का रोगी के शरीर के प्रतिरोधी तंत्र द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाने का खतरा सदैव बना रहेगा, जिससे निपटने के लिए प्रतिरोध–उन्मूलक औषधियों का सहारा लेना पड़ेगा।

स्टेम कोशिकाओं से संबंधित अनुसंधान कार्य अभी नवजात अवस्था में ही है तथा इनके बारे में हमारा ज्ञान अधूरा है। अभी भी बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिलने शेष हैं। जैसे–जैसे इस क्षेत्र में नई–नई खोंजे हो रही हैं वैसे–वैसे कुछ नए अनुत्तरित प्रश्न भी वैज्ञानिको के समक्ष चुनौती बन कर प्रस्तुत होते जा रहे हैं। इन नए–नए प्रश्नों के उत्तर खोजने तथा इनमें छिपी मानव स्वास्थ्य कल्याण की अनन्त संभावनाओं के कारण आजकल वैज्ञानिक जगत में ऐसे अनुसंधानों के प्रति अतिरिक्त उत्साह एवं सक्रियता है। आशा है– निकट भविष्य में ही इनके अथक परिश्रम के फल से संपूर्ण मानव समाज लाभान्वित होगा।

अब बनेंगी जूट की सड़कें

by:- ashish garg 
भारत में अब शीघ्र ही जूट की सड़कें बनाई जाएँगी। इस तकनीक को आई आई टी खड़गपुर के दो वैज्ञानिकों ने विकसित किया है। उनके अनुसार इनसे बनने वाली सड़कें मज़बूत होंगी, भारत के मौसम के अनुकूल होंगी और समय के साथ उनका क्षय नहीं होगा क्योंकि जूट केवल सीधे धूप में ख़राब होता है, अन्यथा नहीं। यह सड़के प्रकृति और पर्यावरण के लिए सबसे अनुकूल मानी गई हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह तकनीक दलदली भूमि, बलुई मिट्टी, ज़्यादा नमी वाली मिट्टी और बाढ़ प्रभावित इलाकों में बहुत सफल होगी, जहाँ आमतौर पर तारकोल वाली सड़कें सफल नहीं हो पाती।

कहाँ बन रही हैं जूट की सड़कें

भारत जैसे कृषि प्रधान और बड़ी ग्रामीण आबादी वाले देशों में यह तकनीक बहुत जल्दी लोकप्रिय हो जाने की संभावना है। भारत के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने जूट से सड़क की तकनीक का लाभ देखते हुए पाँच राज्यों में पायलट परियोजनाएँ शुरू करने की मंजूरी दे दी है। इस तकनीक का विकास राष्ट्रीय जूट निर्माण विकास परिषद और केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान ने संयुक्त रूप से किया है। प्रयोग के तौर पर जूट से ग्रामीण क्षेत्रों की सड़क बनाने की योजना प्रारंभ हुई है।
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह और मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने पिछले सप्ताह जूट से सड़क बनाने की तकनीकी प्रस्तुति को दो दौर में देखा। तकनीक से प्रभावित होकर डॉ सिंह ने असम, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में इस तकनीक से सड़क बनाने की मंजूरी दी। इन राज्यों में वर्ष २००५-०६ के दौरान ४७ ८.४ किलोमीटर सड़क जूट से बनाई जाएगी। ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से चल रही प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना (पी एम जी एस वाई) के तहत इस तकनीक को शामिल किया गया है। इस पर पहले चरण में २२ करोड़ स्र्पए की लागत आएगी। बताया गया है कि पुरानी तकनीक से तैयार होने वाली सड़क की लागत से जूट तकनीक से सड़क निर्माण की लागत प्रत्येक किलोमीटर पर पाँच लाख रुपए कम है। इस हिसाब से ज़रा सोचें - १००० किमी लंबी सड़क बनाने में ५० करोड़ की बचत।

तकनीक

जूट से सड़क बनाने की तकनीक खड़गपुर आईआईटी के मोहम्मद अज़ीज़ और रामस्वामी ने विकसित की है। इस तकनीक की अनुशंसा इंडियन रोड़ कांग्रेस फॉर स्टैंडर्डाइजेशन ने पहले ही कर दी थी। हालाँकि सबसे पहले जूट टेक्सटाइल तकनीक की अवधारणा १९२० में स्कौटलैंड में पैदा हुई, लेकिन चूँकि स्कॉटलैंड में अधिक जूट पैदा नहीं होता था। इसलिए तकनीक सड़क पर उतर नहीं सकी। १९३४ में कोलकाता शहर में जूट का इस्तेमाल कुछ सड़कों पर पहली बार किया गया था। लेकिन जूट से सड़क बनाने की तकनीक पर १९८० से गंभीर अनुसंधान शुरू हुआ और लगभग २५ वर्ष में यह तकनीक तैयार हुई है।

विधि

सड़क बनाने के लिए जूट की लगभग आधा इंच मोटाई की लंबी-लंबी जमावट फैक्ट्री में की तैयार जाएगी जिसे 'जूट मैट' कहा जा सकता है, फैक्ट्री में 'जूट मैट' के थान तैयार किए जाएँगे। इसके बाद मिट्टी की सड़क तैयार की जाएगी। उस पर जूट मैट बिछा दिया जाएगा। फिर मिट्टी की मोटी परत पर, इंर्ट की जमावट की जाएगी और उसके ऊपर तारकोल की पतली परत डाल दी जाएगी। इस तरह जूट की सड़क तैयार हो जाएगी। रामास्वामी के अनुसार यह सड़क जितनी पुरानी होगी वह उतनी ही मज़बूत होती जाएगी। इसकी वजह है कि जूट पानी या नमी में कभी नहीं सड़ता। जूट सिऱ्फ तेज़ धूप या गर्मी में सड़ता और टूटता है। इस विधि से सड़क बनाने पर जूट सीधा धूप और गर्मी के संपर्क में नहीं आएगा अत: इसके ख़राब होने की संभावना बिलकुल नहीं है। वैज्ञानिकों का दावा है कि जूट से बनाई गई सड़क की देखरेख या रखरखाव की भी ज़रूरत नहीं है।

अर्थव्यवस्था

डॉ ऱघुवंश प्रसाद सिंह ने इस तकनीक का प्रदर्शन देखने के बाद कहा कि इस पर बजट की कमी नहीं होने दी जाएगी। अभी जिन पाँच राज्यों में प्रयोग शुरू किया जा रहा है, यदि वहाँ यह सफल होता है तो फिर इसे देश के अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में शुरू किया जाएगा।
उन्होंने कहा, "प्लास्टिक कचरे से सड़क बनाने और तारकोल-मिट्टी मिश्रण से सड़क बनाने की तुलना में गांवों की सड़क जूट से बने और सफल हो तो इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था मज़बूत होगी।"
विशेषज्ञ मानते हैं कि आज जूट उत्पादक किसान और उद्योग बदहाली में है। ऐसे में यह तकनीक सफल होती है, तो जूट उद्योग के दिन बदल जाएँगे और पर्यावरण के क्षेत्र में भी हम प्रकृति की ओर एक नया कदम बढ़ाएँगे।

BIO-DIESEL जैव-ईंधन : ऊर्जा के नये वैकल्पिक स्रोत

 by:- dr.gurudayal pradip
वर्तमान समय में मानव समाज को डराने एवं चिंतित रखने के लिए तरह-तरह के नये-नये भूतों का आविष्कार मानव समाज ने स्वयं कर डाला है। अब ये भूत समय-कुसमय तरह-तरह के डरावने रूप में हमारे सामने आ कर खड़े हो जाते हैं। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जो स्थाई रूप से हमारे पीछे जोंक की तरह लगे हुए हैं। इनसे पीछा छुड़ाना बड़ा मुश्किल लग रहा है। इन भूतों ने मिल-जुल कर एक बड़े ही जटिल मकड़जाल का रूप ले लिया है। एक से निपटो (अस्थाई रूप से ही सही) तो दूसरा सामने खड़ा है। विज्ञानवार्ता और भूत-प्रेत की चर्चा! बात कुछ जमती नहीं है। पाठकगण कृपया भौंहें टेढ़ी न करें। जिसके बारे में लेखक को ही कोई ज्ञान न हो, उस पर भला वह चर्चा करेगा भी क्या। वैसे भी विज्ञान प्रमाण माँगता है। बिना प्रमाण के वह न तो किसी को स्वीकारने की स्थिति में होता है और न ही अस्वीकारने की स्थिति में। मैं तो ऐसे भूतों की बात कर रहा हूं जिनका अस्तित्व स्वयं सिद्ध है और ये हमारे भूत, वर्तमान, भविष्य सभी में शामिल हैं। बढ़ती जनसंख्या का भूत, आतंकवाद का भूत, असुरक्षा का भूत, महँगाई का भूत, प्रदूषण का भूत क़हाँ तक गिनाएँ? अब आप चाहे इन्हें भूत की संज्ञा दें, वर्तमान की संज्ञा दें या फिर भविष्य की ल़ेकिन एक बात तो तय है और वह यह कि इन सबने हमारी नींद हराम कर रखी है। दूसरी बात, इन सबकी उत्पत्ति के पीछे सुविधाभोगी आधुनिक मानव समाज, उसकी राजनीति एवं कुछ सीमा तक वैज्ञानिक प्रगति का मिला-जुला हाथ है।

हालाँकि सामाजिकता, राजनैतिकता एवं वैज्ञानिकता का बड़ा गहरा संबंध है, फिर भी क़्योंकि यह विज्ञानवार्ता का क्षेत्र है इसलिए यहाँ इन भूतों पर चर्चा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही की जाएगी। अब देखिए न - बढ़ती जनसंख्या के लिए चाहे भोजन जुटाना हो, चाहे सुख-सुविधा के साधन जुटाना हो या फिर असुरक्षा और आतंकवाद जैसे भूत से निपटने के लिए अधुनातन हर्बा-हथियार जुटाना हो, विज्ञान एवं वैज्ञानिक पूरी तन्मयता से इस कार्य में लगे हुए हैं। जाहिर है इन सभी कार्यों के लिए ढेर सारी ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है।

वैसे तो प्रकृति ने हमें सौर ऊर्जा, नाभिकीय ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा आदि के रूप में ऊर्जा का अकूत भंडार सौंप रखा है और हम इनका उपयोग भी काफ़ी हद तक करना सीख गए हैं। फिर भी, कई क्षेत्रों, विशेषकर यातायात के क्षेत्र में आज भी हम मुख्य रूप से जीवाश्म-ईंधन यथा कोयला एवं पेट्रोलियम पर ही निर्भर हैं। दुर्भाग्य से न तो इनका वितरण संसार के सभी देशों में एक सार है और न ही हमारे पास इनका असीमित भंडार ही है। जिस रफ़्तार से उनका उपयोग हो रहा है, ये बहुत दिनों तक नहीं चलने वाले है। बढ़ती जन संख्या के साथ इनकी माँगग बढ़ती ही जा रही है। जिन देशों के पास इनका भंडारण ज्यादा है वे मौके का फायदा उठाते हुए जब-तब दाम बढ़ाते ही रहते हैं। परिणाम सामने आता है, बढ़ती महँगाई के रूप में। पहले यातायात महँगा होता है फिर खाने से लेकर रोजमर्रा एवं सुख-सुविधा से जुड़े साज-सामानों की बारी आती है। इसकी मार जो जितना गऱीब होता है उसपर उतनी ही ज़्यादा होती है। ऊपर से ये ईंधन हमारे वातावरण को भी प्रदूषित कर रहे हैं जिसका कुप्रभाव हमारे व्यक्तिगत स्वास्थ्य से लेकर पूरी धरती के ऊपर पड़ रहा है। यदि हाल यही रहा तो यह धरती ही हमारे रहने योग्य नहीं बचेगी।

स्थिति चिंताजनक है। लेकिन हमें समस्या रूपी इन भूतों से डरने की आवश्यकता नहीं है। मानव समाज शुरू से ही जुझारू प्रकृति का रहा है। वह गलतियों से सीखना जानता है और समस्यायों से निपटना भी। वैकल्पिक ऊर्जा के दोहन एवं उनके व्यावहारिक उपयोग के तरीके खोजने में वह दिन-रात एक किए हुए है। कोई सौर-ऊर्जा से वाहन चलाने की कोशिश कर रहा है, तो कोई बैटरी से तो कोई एथेनॉल या फिर मात्र पानी से ही। इन प्रयासों में हमें आंशिक सफलता भी मिल रही है। लेकिन व्यावहारिक उपयोग की सीमा तक ऐसे वाहनों तथा इनसे जुड़े आधारभूत संरचनाओं एवं संसाधनों के विकास में काफ़ी समय लग सकता है। तो तब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें?

पेट्रोलियम एवं कोयला जैसे प्राकृतिक जीवाश्म-ईंधन का निर्माण जीवों, विशेषकर वनस्पतियों द्वारा ही प्राकृतिक रूप से हुआ है। तो क्या हम इन्हीं जीवों एवं वनस्पतियों का उपयोग कर कृत्रिम पेट्रोल नहीं बना सकते? अवश्य बना सकते हैं। ऐसे ही तरीकों में एक है- बॉयोडीजल का उत्पादन।

तो चलिए, अब देखें कि यह बॉयोडीजल है क्या? इसे कैसे बनाया जाता है और इसके गुण-अवगुण क्या हैं?

वनस्पति तेलों एवं अथवा जंतुओं से प्राप्त वसा को 'ट्रांसएस्टरीफ़िकेशन' जैसी रसायनिक प्रक्रियाओं द्वारा संसाधित कर बॉयोडीजल का निर्माण आसानी से किया जा सकता है। वनस्पति तेल एवं जंतु-वसा ग्लीसरॉल तथा फ़ैटीएसिड्स के रसायनिक संयोग से बने एस्टर्स ही होते हैं। इनके 'एल्कॉक्सी' ग्रुप के एल्केन भाग को किसी भी अन्य इच्छित एल्कॉहल के एल्केन ग्रुप से बदला जा सकता है। इस प्रकिया के लिए किसी एसिड अथवा बेस की आवश्यकता भी पड़ती है, जो उत्प्रेरक का कार्य करता है। हालाँकि ट्रांसएस्टरीफ़िकेशन की प्रक्रिया, तमाम प्रकार के वनस्पति तेलों एवं जंतुवसा में कराई जा सकती है, लेकिन बॉयोडीजल के उत्पादन में वनस्पति तेलों, विशेषकर सोयाबीन अथवा कनोला का उपयोग किया जाता है। मेथेनॉल द्वारा इसका ट्रांसएस्टरीफ़केशन किया जाता है। इसके पश्चात प्राप्त बॉयोडीजल से ग्लीसरीन, बचे हुए स्वतंत्र फ़ैटीएसिड्स, उत्प्रेरक तथा एल्कॉहल जैसी अशुद्धियों को दूर किया जाता है, साथ ही इसमें सल्फ़र की मात्रा को न्यूनतम
स्तर पर लाने का उपाय किया जाता है।इस प्रकार परिशोधित बायोडीजल को बी १०० का मानक दिया जाता है।

इस प्रक्रिया द्वारा प्राप्त बॉयोडीजल, पेट्रोडीजल के सदृश्य ही होता है और इसका उपयोग आज के आधुनिक डीजल वाहनों में सीधे तौर पर किया जा सकता है या फिर पेट्रोडीजल के साथ किसी अनुपात में मिला कर। इसके लिए वाहन में किसी भी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती। साथ ही इसकी आपूर्ति के लिए आधुनिक पेट्रोल स्टेशनों की आधारभूत संरचना में भी किसी परिवर्तन की आवश्यता नहीं है। अत: बॉयोडीजल को आधुनिक समय में प्रयोग में लाए जा रहे पेट्रोल एवं पेट्राडीजल के विस्थापक के रूप में देखा जा रहा है। हालाँकि विशुद्ध रूप में इसके उपयोग में कुछ अड़चनें भी हैं, यथा : यह एँजिन में लगने वाले, रबर से बने अवयवों को ख़राब करता है। यह समस्या अब अपने आप दूर हो गई है क्यों कि १९९३ के बाद बनने वाले वाहनों में रबर की जगह विटॉन का उपयोग होने लगा है जिसके ऊपर बॉयोडीजल का कोई भी कुप्रभाव नहीं है।

  • ४ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान के नीचे विशुद्ध बॉयोडीजल में श्लेष्मीकरण (gelling) प्रारंभ हो जाता है ठंडे देशों एवं जाड़े के मौसम में कहीं भी यह एक बड़ी समस्या है। इससे बचने का उपाय है, कम सल्फ़र के स्तर वाले पेट्रोडीजल, किरोसिन तेल तथा बॉयोडीजल को ६५%, ३०% एवं ५% के अनुपात में मिला कर उपयोग में लाना। देशकाल के अनुसार यह अनुपात बदला भी जा सकता है। ८० प्रतिशत पेट्रोडीजल तथा २० प्रतिशत बॉयोडीजल के मिश्रण से बने बी २० मानक वाला ईंधन आदर्श है।
     
  • बॉयोडीजल के दहन से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक निष्कर्षित नाइट्रोजन ऑक्साड्स की मात्रा पेट्रोडीजल की तुलना में निश्चय ही अधिक होती है, परंतु इसे भी कैटेलिटिक कन्वर्टर लगा कर नियंत्रित किया जा सकता है।
     
  • बॉयोडीजल पानी में मिश्रणीय तो नहीं है, फिर भी कुछ हद तक जल-प्रीति तो है ही। फलत: संशोधन की प्रक्रिया के बाद थोड़ी-बहुत मात्रा में बचा-खुचा पानी या फिर भंडारण टंकी में सघनन के फलस्वरूप निर्मित जल इसमें मिल ही जाता है। यह जल ईंधन के ज्वलनशीलता ताप में कमी लाता है। परिणाम, एँजिन के जल्दी न स्टार्ट होने, इसके इंर्ंधन-प्रणाली के क्षरण एवं अधिक मात्रा में धुएँ के निष्कासन के रूप में सामने आता है। ठंडे देशों में इस जल का क्रिस्टलीकरण भी हो सकता है जो बॉयोडीजल के श्लेष्मीकरण को प्रोत्साहित करता है। ऊपर से इस जल में जीवाणु भी पनप सकते हैं जो एँजिन के ईंधन-प्रणाली को अवरूद्ध कर सकता है। परंतु इन समस्याओं से निपटना कोई बड़ी बात नहीं है।

आइए अब बॉयोडीजल के उन गुणों पर दृष्टिपात किया जाय, जो इसके पक्ष में जाते हैं:

  • किसी भी वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत की तुलना में इसमें ऊर्जा की मात्रा सर्वाधिक है। इसके अतिरिक्त इसका सीटेन नंबर पेट्रोडीजल की तुलना में ज़्यादा है अत: एँजिन में शीघ्र प्रज्ज्वलित होता है।
  • इसका स्नेहाँक पेट्रोडीजल की तुलना में ऊंचा होता है जिसका अर्थ है, एँजिन के फ़्यूएल इंजेक्टर की लंबी आयु।
  • जीवणुओं द्वारा इसका अपचयन चीनी के समान ही शीघ्रता से होता है, साथ ही यह नमक से भी कम विषाक्त है।
  • पेट्रोलियम की तुलना में इसके प्रज्वलन से कार्बनमोनोऑक्साइड के निष्कर्षण में लगभग ५० प्रतिशत एवं कार्बनडाईऑक्साइड के निष्कर्षण में ७० से ८० प्रतिशत की कमी देखी गई है। जहाँ पेट्रोलियम ईंधन धरती में जमा कार्बन को पुन: वातावरण में लाकर प्रदूषण के स्तर को तेजी से बढ़ा रहे हैं, वहीं बॉयोईंधन लगभग उतने ही कार्बन को वातावरण में वापस करते हैं जितना वनस्पतियों द्वारा इनके संश्लेषण में होता है। अत: इसके उपयोग से प्रदूषण का स्तर काफ़ी कम हो सकता है।
  • बॉयोडीजल के दहन से पेट्रोलियम के दहन की तुलना में कणिकारूपी प्रदूषक पदार्थों की मात्रा में ६५ प्रतिशत की कमी आती है। इसका अर्थ है, कैंसर होने की संभावना में ९४ प्रतिशत की कमी। इसमें स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बेंज़ोफ़्ल्यूरोएन्थीन तथा बेंज़ोपाइरीन सदृश्य गंधयुक्त हाइड्रोकार्बन की मात्रा भी पेट्रोलियम की तुलना में लगभग आधी होती है। कुल मिला कर स्वास्थ्य की दृष्टि से यह पेट्रोल की तुलना में कई गुना अधिक सुरक्षित है।

गुण ढेर सारे और अवगुण इतने कम! फिर भी क्या कारण है कि आज भी हमारे वाहन मुख्य रूप से पेट्रोलियम पर ही निर्भर हैं, बॉयोडीजल पर नहीं? वर्तमान समय में संसार के सभी वाहनों में विशुद्ध रूप (B100)  में इसके उपयोग के लिए जितनी मात्रा में वनस्पति तेल की आवश्यकता है वह पूरे विश्व की खेती योग्य जमीन को मात्र कनोला एवं सोयाबीन जैसे वनस्पति तेल के पारंपरिक स्रोत की खेती के लिए इस्तेमाल करने पर भी कम ही पड़ेगी। यह व्यावहारिक रूप से संभव भी नहीं है। आख़िर हम अन्य फ़सलों, विशेषकर अन्न प्रदान करने वाली फ़सलों को कहाँ उगाएँगे? इसके अतिरिक्त इतने वृहद रूप में खेती करने पर कुछ दिनों बाद जमीन कितनी उपजाऊ रह जाएगी तथा संश्लेषित खाद एवं पेस्टिसाइड्स आदि के उपयोग के कारण जमीन कितनी प्रदूषित हो जाएगी, यह सब कल्पना के परे है।

वास्तव में बॉयोडीजल की अवधारणा कोई नयी बात नहीं है। ड्यूफ़ी एवं पेट्रिक ने रूडॉल्फ़ डीजल द्वारा डीजल एँजिन के विकास के कई दशक पहले, १८५३ में ही वनस्पति तेलों के ट्रांसएस्टरीफ़िकेशन की विधि खोज निकाली थी। १९०० में पेरिस के वर्ल्ड फ़ेयर में रूडॉल्फ़ डीजल ने जिस डीजल एँजिन का प्रदर्शन कर ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार जीता था, वह मूंगफली के तेल से ही चलता था। इस एँजिन के आविष्कार के मूल में रूडॉल्फ़ डीजल की परिकल्पना भी यही थी कि भविष्य में यह पेट्रोलियम से चलने वाले एँजिन के विकल्प के रूप में सामने आएगा। मूंगफली का तेल बॉयोडीजल तो नहीं है, लेकिन इसे बॉयोईंधन की संज्ञा अवश्य दी जा सकती है। १९२० में इस प्रकार के एँजिन के उत्पादकों ने इसे प्रेट्रोडीजल से चलाने के लिए इसमें आवश्यक परिवर्तन किया, कारण उन दिनों पेट्रोडीजल काफ़ी सस्ता था एवं लोगों को प्रदूषण का
इतना अनुमान नहीं था।

पेट्रोलियम के बढ़ते दामों, इसकी आपूर्ति में हो रही दिक्कतों एवं बढ़ते प्रदूषण के खतरे को देखते हुए, १९८० के दशक में ऑस्ट्रिया में बॉयोडीजल के उत्पादन का पुनर्प्रयास किया गया। १९९१ में वहाँ इसके औद्योगिक स्तर पर उत्पादन की व्यवस्था की गई। १९९० तथा उसके बाद के दशक में यूरोप एवं संसार के अन्य देशों में भी इसके औद्योगिक उत्पादन तथा पेट्रोडीजल के साथ मिला कर इसे वाहनों में प्रयुक्त करने के प्रयास में काफ़ी तेजी आई है। बी २० का उपयोग तो अब आम बात है, बी ५० के उपयोग के संबंध में काफ़ी़ अनुसंधान कार्य चल रहा है। वनस्पति तेलों के अन्य प्राकृतिक
एवं व्यावहारिक स्रोतों की खोज में भी तेजी आई है।

इस संदर्भ में कुछ सूक्ष्म-शैवालों (Alga) पर भी हमारी दृष्टि पड़ी है। इनकी खेती पानी में, कम खर्च में आसानी से की जा सकती है तथा जमीन पर उगने वाली वनस्पतियों की तुलना में इनसे तेल भी ७ से ३१ गुना अधिक मात्रा में निकाला जा सकता है। हालाँकि अभी भी औद्योगिक स्तर पर इनकी खेती, तेल निकालने का कार्य एवं बॉयोडीजल के उत्पादन का कार्य प्रारंभ नहीं हुआ है, परंतु प्रयास जारी हैं। न्यूज़ीलैंड के एक्वाफ़्लो बॉयोनॅमिक कारपोरेशन ने मई २००६ में पहली बार म्युनिसिपालिटी के सीवेज तालाब में प्रकृतिक रूप से उगने वाले शैवालों से निष्कर्षित तेल से बॉयोडीजल के नमूने के उत्पादन की घोषणा की है। चूंकि शैवाल पानी में उगते हैं, अत: इनकी खेती से जमीन पर उगने वाले कृषि उत्पाद बिल्कुल
ही अप्रभावित रहेंगे। लेकिन, इस दिशा में और भी अनुसंधान की आवश्यकता है।

थेनॉल, जिसे एथिल एल्कॉहल या फिर सामान्य रूप से मात्र एल्कॉहल के नाम से जाना जाता है, एक अन्य बॉयो-ईंधन के रूप में हमारे सामने है। वनस्पति-तेलों की तरह इसके उत्पादन के लिए मात्र बीजों पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। इसका उत्पादन किसी भी पौधे में पाए जाने वाले स्टार्च या शर्करा से किण्वन (fermentation) द्वारा आसानी से किया जा सकता है। गन्ना इसका सबसे उपयुक्त एवं सस्ता स्रोत है। एथेनॉल को विशुद्ध रूप में भी प्रयोग में लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए वाहनों के एँजिन में समुचित परिवर्तन की आवश्यकता पड़ेगी। कारण, विशुद्ध रूप में यह एँजिन के रबर तथा प्लास्टिक से बने अवयवों को गला देता है। साथ ही, पेट्रोल की तुलना में इसकी ऑक्टेन रेटिंग २० प्रतिशत अधिक है।अर्थात इसके उपयोग के लिए पेट्रोल एँजिन की तुलना में बड़े कार्ब्युरेटर जेट की आवश्यकता है, जिसका क्षेत्रफल ३० से ४० प्रतिशत तक ज्या़दा हो। साथ ही ऐसे देशों में जहाँ तापमान १३ डिग्री सेंटीग्रेड से कम होता है, ऐसे एथेनॉल एँजिन की आवश्यकता पड़ेगी जो इतनी ठंड में भी स्टार्ट हो सके। हाँ, यदि इसे १० से ३० प्रतिशत तक पेट्रोल के साथ मिला कर उपयोग में लाया जाय तो वर्तमान पेट्रोल एँजिन में किसी विशेष परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके साथ भी यक्ष प्रश्न यही है कि संसार के समस्त वाहनों के लिए आवश्यक एथेनॉल के उत्पादन के श्रोत अर्थात गन्ने की खेती के लिए अतिरिक्त जमीन कहाँ से आएगी? और यदि यह कर भी लिया जाय तो भोजन प्रदान करने वाली फ़सलें कहाँ उगाई जाएँगी?
वो कहते है न जहाँ चाह, वहाँ राह। प्रयास जारी है। इस आलेख में वर्णित विकल्पों के अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर भी अनुसंधान जारी है। हाल ही में (जून २००६) विस्कांसिन-मेडिसॉन युनिवर्सिटी के रसायनिक एवं जैव इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर जेम्स ड्युमेसिक तथा इनके सहयोगियों ने फलों में पाए जाने वाली शर्करा, फ्रक्टोज को हाइड्रॉक्सीमेथाइलफ़रफ़्यूराल (HMV) में बदलने की सस्ती विधा खोजने में सफलता पाई है। HMV एक ऐसा अंतरिम रसायन है, जिसे न केवल डीजल रूपी ईंधन में बल्कि प्लास्टिक जैसे पदार्थों में भी आसानी से बदला जा सकता है। ध्यान रहे, वर्तमान समय में प्लास्टिक या इसी प्रकार के अन्य तमाम रसायनों के उत्पादन के लिए हज़ारों-हज़ार टन पेट्रोलियम अथवा प्राकृतिक गैस का उपयोग होता है। यदि इस प्रकार के प्रयास आगे भी होते रहे तो आज नहीं तो कल, ईंधन से जुड़ी समस्याओं का हल खोज ही लिया जाएगा। और, वह कल ज्या़दा दूर नहीं है।

Sunday, 17 November 2013

फैलता हुआ ब्रह्मांड Felta Hua Universe

by:- dr.bhakt darshan shrivastav
रॉयल स्वीडिश एकेडेमी ऑफ साइंसेज ने भौतिकशास्त्र में इस वर्ष का नोबेल पुरूस्कार तीन वैज्ञानिकों, साउल पर्लमटर, ब्रायन श्मिट और एडम रीस, को ब्रह्मांड के फैलाव को समझने की दिशा में किये गये उनके शोध के लिए देने कि घोषणा की है।
ब्रह्मांड के शोधकर्ताओं ने फटते हुए तारों द्वारा ब्रह्मांड के फैलने की गति तेज होने के बारे में जानकारियाँ दी हैं। उनके अनुसार ब्रह्मांड का विस्तार जिस तेजी से हो रहा है, उससे एक दिन यह बर्फ में परिवर्तित हो जाऐगा। अमेरिकी मूल के तीनों वैज्ञानिक- साउल पर्लमटर, ब्रायन श्मिट और एडम रीस ब्रह्मांड के भविष्य के बारे में रों के विखंडन का अध्ययन कर ब्रह्मांड के विस्तार में तेजी आने की बात साबित की। इसके पूर्व वैज्ञानिको की धारणा यह थी कि ब्रह्मांड के फैलाव की गति में लगार कमी आ रही है।
पर्लमटर बर्कले स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में सुपरनोवा कॉस्मोलोजी प्रोजेक्ट के अध्यक्ष हैं जबकि श्मिट ऑस्ट्रेलिया के वेस्टन क्रीक स्थित ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी में हाई-जेड सुपरनोवा सर्च टीम के अध्यक्ष और रीस मेरीलैंड के बाल्टिमोर स्थित जॉन हापकिंस युनिवर्सिटी एंड स्पेश टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट में खगोलशास्त्र के प्रोफेसर हैं।

१९९० के दशक में पर्लमुटटर ने अलग और शिमिडट एवं रीस ने एक साथ मिलकर दो अलग-अलग अनुसंधान दलों में काम किया था। एकेडमी ने बताया कि वैज्ञानिकों ने एक विशेष प्रकार के सुपरनोवा यानी फटते तारों के विश्लेषण के जरिए ब्रह्मांड के विस्तार के बारे में जानकारियां दी हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में बताया कि 5० से अधिक सुपरनोवा से निकलने वाला प्रकाश उम्मीद से कम है जिससे पता चलता है कि ब्रह्मांड का विस्तार तेज गति के साथ हो रहा है।

अब तक खगोल वैज्ञानिकों के पास तीन प्रतिद्वंदी सिदांत हैं। प्रत्येक सिद्धांत की भविष्यवाणी को ब्रह्मांड के अवलोकित गुणों से मिलाकर देखने के बाद, वे निर्णय लेते हैं कि कौनसा सिद्वान्त लोकप्रिय है।

महा विस्फोट सिद्धांत के अनुसार १८०००० लाख वर्ष पहले एक भयानक विस्फोट में ब्रह्मांड की उत्पति हुई। इस विस्फोट में पदार्थ बाहर निकले जो गुच्छों में संघनित हो गये जिसे आकाशगंगा कहते हैं जो अभी भी बाहर की तरफ बढ़ रही है। इसका विस्तार अनंतकाल से जारी है। जैसे जैसे ब्रह्मांड पुराना हो जायेगा, इसका पदार्थ समाप्त हो जायेगा।।

दोलन ब्रह्मांड सिद्वान्त जो महाविस्फोट सिद्धांत का परिवर्तित रूप है, का मानना है कि ब्रह्मांड का विस्तार अंततः धीमा होकर रुक जायेगा और आकाशगंगा सिमटकर एक अन्य महा विस्फोट करेगा इस तरह ब्रह्मांड विस्तार और संकुचन के अंतहीन चक्र से गुजर रहा है। किन्तु प्रकृति का नियम प्रत्येक चक्र में अलग हो सकता है।

स्थायी अवस्था सिद्धांत महाविस्फोट सिद्धांत का वैकल्पिक विचार है, इस सिद्धांत का कहना है कि ब्रह्मांड किसी एक क्षण में नहीं पैदा हुआ और न ही कभी एक क्षण में मरेगा। इसके अनुसार जैसे जैसे ब्रह्मांड का विस्तार होता है, वैसे ही खाली स्थान को भरने के लिए नये पदार्थ की रचना हो जाती है। इसीलिये समय के साथ ब्रह्मांड एक जैसा ही दिखता है।

वर्तमान अध्ययन में तीनों नोबेल विजेता वैज्ञानिक विशेष तरीके से फटते हुआ तारे यानि सुपरनोवा के अध्ययन के द्वारा ब्रह्मांड के फैलाव को समझने की दिशा में किये गये प्रयोगों व गणनाओं द्वारा अंतिम निर्णय तक पहुँचे।

रॉयल स्वीडिश एकेडेमी ऑफ साइंसेज के अनुसार, अपने अध्ययन के दौरान इन वैज्ञानिकों ने पाया कि पचास से भी अधिक सुपरनोवा तारों से निकल रहा प्रकाश अपेक्षा से कम है। जिससे संकेत मिलते है कि ब्रह्मांड तेजी से फैल रहा है। करीब एक शताब्दी तक हम यह जानते थे कि ब्रह्मांड १४ अरब वर्ष पहले महा विस्फोट के अनुसार ही फैल रहा है। लेकिन इन वैज्ञानिकों के प्रयोग व उनकी गणना ने इस अवधारणा को बदल दिया है। इस नई गणना से यह पता लगा है कि ब्रह्मांड में फैलाव आश्चर्यजनक रूप से काफी तेजी से हो रहा है। शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि अगर विस्तार की गति इसी गति से बढती रही तो एक दिन हमारा ब्रह्मांड बर्फ में परवर्तित हो जाएगा।

तीनों अनुसंधानकर्ता अपनी खोज से अचंभित हैं क्योंकि प्रयोगों के पूर्व इन्हे उम्मीद थी कि अध्ययन के दौरान ब्रह्मांड के विस्तार की गति कम होने का पता चलेगा, लेकिन उनके अनुसंधान का निष्कर्ष एक दम उल्टा निकला। नतीजे बते हैं कि ब्रह्मांड का विस्तार धीमा नहीं तेज हुआ है और ब्रह्मांड में आकाशगंगाएँ कहीं अधिक तेज गति से एक दूसरे से दूर जा रही हैं। यह गतिवर्धन डार्क एनर्जी से संचालित है, जो ब्रह्मांड का एक बड़ा रहस्य है।

Nano Technology.. नैनोटेक्नॉलॉजी..

 by:- dr.gurudayal pradeep
अगर मैं कहूँ कि निकट भविष्य में उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में लगी मशीनों का आकार छोटा होते–होते इतना छोटा हो जाएगा कि हजारों ऐसी मशीनें इस पन्ने के एक वाक्य में समा जाएँगी तो आप कहीं आँखें फाड़ कर इस वाक्य को ही न घूरते रह जाइएगा। विज्ञान की इस नई विधा को नैनोटेक्नॉलाजी का नाम दिया गया है। आगे मैं आप को इसके बारे में और भी बहुत कुछ बताने वाला हूँ, जो आँखों के साथ–साथ आप के दिल–दिमाग को भी चकरा कर रख देगा।

अगले पचास सालों में ही हम इन नैनोमशीनों का उपयोग कर अणुओं एवं परमाणुओं को एक–एक कर जोड़ सकेंगे और इसी स्तर पर क्रिकेट की गेंद से लेकर टेलीफोन, कार, हवाई जहाज, कम्प्यूटर सभी कुछ, मनचाहे पदार्थ द्वारा किसी भी आकार–प्रकार में बना पाएँगे। साथ ही इनकी क्षमता भी हजारों गुना अधिक होगी। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इस टेक्नॉलॉजी की मदद से हम एमआइपीएस क्षमता वाले बैक्टीरिया के आकार के कंप्यूटर्स से ले कर अरबों लैपटॉप्स की क्षमता से युक्त चीनी के क्यूब के आकार के कंप्यूटर्स अथवा खरबों डेस्क टॉप की क्षमता युक्त आजकल के पीसी के आकार के कंप्यूटरों का निर्माण कर पाएँगे? या फिर ऐसे नैनोबॉट्स का निर्माण संभव होगा जो हमारे शरीर के ऊतकों में घुस कर वाइरस और कैंसर कोशिकाओं की आणविक संरचना को पुनर्गठित कर उन्हें निष्क्रिय कर दें? उपरोक्त उदाहरण तो बस नमूने के तौर पर हैं। भविष्य में इस टेक्नॉलॉजी से जुड़ी संभावनाएँ अनंत हैं, वास्तविक हैं, मात्र कोरी कल्पना नहीं।
वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक मानना है कि नैनो टेक्नॉलॉजी द्वारा चिकित्सा, इलेक्ट्रॉनिक्स, यातायात, अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर छोटे–बड़े सभी प्रकार के उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण तथा उपयोग के क्षेत्र में एक नई क्रांति आने वाली है और तब हमें आजकल की बड़ी–बड़ी मशीनों एवं औद्योगिक इकाइयों तथा कारखानों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आखिर, यह नैनो टेक्नॉलॉजी है क्या चीज और कैसे इसकी मदद से सारी दुनिया को बदलना संभव हो पाएगा–आइए, इसे समझने का प्रयास किया जाए।
किसी भी पदार्थ को परमाणविक पैमाने ह्यनैनो स्केलहृ पर नियंत्रित ढंग से जोड़–तोड़ कर अपनी इच्छानुसार नए रूप में परिवर्तित करने लेने की विधा का नाम नैनोटेक्नॉलॉजी है। लगभग चालीस साल पहले रिचर्ड फिनमैन ने इस अवधारणा का सुझाव दिया था और १९७४ में नॉरियो तानीगूची ने इसका नामकरण किया।
इस ब्रह्माण्ड में पाई जाने वाली सभी वस्तुओं की संरचना के मूल में परमाणु हैं या फिर थोड़े से जटिल रूप में इन परमाणुओं से निर्मित अणु हैं। किसी भी वस्तु का गुण उसकी संरचना में प्रयुक्त परमाणुओं एवं अणुओं के विन्यास पर निर्भर करता है। किसी भी वस्तु के अणुओं एवं परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर इसे दूसरी वस्तु में आसानी से बदला जा सकता है। कोयले की संरचना में प्रयुक्त कार्बन के परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर हीरे में बदला जा सकता है या फिर बालू के परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर और उसमें थोड़ी सी अशुद्धि मिला कर कंप्यूटर चिप्स में बदला जा सकता है । इससे भी आगे बढ़ कर कीचड़, पानी और हवा में पाए जाने वाले परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर घास से ले कर इंसान तक सब कुछ सीधे–सीधे बनाकर ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंच तत्व से बना शरीरा’ की कहावत को ही चरितार्थ किया जा सकता है। या फिर हवा में चुटकी बजा कर महल भी बनाया जा सकता है अथवा किसी भी वस्तु को आँखों के सामने से गायब भी किया जा सकता है। हैं न ये करिश्माई ओर जादुई बातें? लेकिन क्या वाकई यह सब संभव है? और यदि सब संभव है, तो अब तक हम ऐसा क्यों नही कर पाए एवं भविष्य में हम ऐसा क्यों और कैसे कर पाएँगे–अब आइए, हम इन सब बातों पर विचार करें।
पाषाण युग से वर्तमान युग तक के लंबे सफर में मानव सभ्यता ने समय की गति के साथ, अपनी सुविधा एवं आवश्यकतानुसार, प्रकृतिक संसाधनों द्वारा पत्थर से बने औजार एवं चाकू से ले कर आधुनिक हथियार, कंप्यूटर, टीवी, मोटर, हवाई जहाज, मोबाइल फोन, अंतरिक्ष यान आदि क्या नहीं बना डाला। नि:संदेह दिन प्रतिदिन परिमार्जित होती जा रही तकनीकि के कारण इनकी गुणवत्ता बढ़ती जा रही है साथ ही लागत में लगातार कमी आती जा रही है, परंतु हमारी आधारभूत निर्माण तकनीकि में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है। कारखानों तथा औद्योगिक ईकाइयों में छिनाई, घिसाई, कुटाई, पिसाई, ढलाई जैसी पुरानी तकनीकि का उपयोग हम आज भी कर रहे हैं। चाहे एक पत्थर के टुकड़े को घिस कर चाकू या भाले का रूप देने वाला आदि मानव हो या फिर छेनी–हथौड़ी से पत्थर को विशेष आकार दे कर बड़े–बड़े स्मारक बनाने वाला मध्य युगीन मानव अथवा पत्थर, धातुओं आदि को कूट–पीस या गला कर मनचाहे आकार में ढाल कर तरह–तरह के उपकरण तथा उपभोक्ता वस्तुएँ बनाने वाला आधुनिक मानव, वह आधारभूत रूप से अब भी कच्चे माल के अणुओं एवं परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित करने की प्रक्रिया में ही लगा हुआ है।
ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में इतनी प्रगति के बावजूद उसके उपकरण तथा तकनीकि इतने अपरिष्कृत हैं कि किसी भी वस्तु के निर्माण की प्रक्रिया में अब भी हजारों, लाखों अणु तथा परमाणु एक बडे. समूह में अव्यवस्थित ढंग से प्रतिस्थापित होते हैं। इस प्रकार इनका अपव्यय तो होता ही हैऌ साथ ही नई वस्तु की संरचना में इनके अवांछित स्थान पर अनावश्यक मात्रा मे जमाव के कारण उसका रूप भी पूर्ण रूपेण सटीक एवं शुद्ध नहीं होता। फर्क सिर्फ इतना है कि आदिमानव तथा मध्य युगीन मानव को पदार्थों की आणविक एवं परमाणुविक संरचना का ज्ञान नहीं था, जब कि आधुनिक मानव को इसका ज्ञान है। इस प्रक्रिया में आवश्यकता से कई गुना अधिक ऊर्जा भी खर्च होती है।
काश, हम ऐसी तकनीकि एवं उपकरणों का विकास कर पाते जो किसी भी वांछित वस्तु के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले सभी प्रकार के अणुओं एवं परमाणुओं की सही पहचान कर, उन्हें आस–पास की मिट्टी, हवा, पानी या किसी भी प्राकृतिक संसाधन से उपयुक्त मात्रा में अलग कर सकें तथा उस वस्तु की संरचना के अनुसार उन्हें सटीक रूप से।
पुनर्व्यवस्थित कर सीधे–सीधे वांछित वस्तु का निर्माण कर सकें। आखिर हमें कोयला पाने के लिए खदानों में जा कर इतनी मेहनत क्यों करनी चाहिए जब कि इसकी संरचना में प्रयुक्त कार्बन के परमाणु हमारे आस–पास की मिट्टी, हवा, पेड़–पौधों आदि में विभिन्न यौगिकों के रूप में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। या फिर इन्हीं कार्बन के परमाणुओं से बने हीरे को खदानों से निकाल कर उसे तराशने में अपनी ऊर्जा एवं समय की बरबादी क्यों करनी चाहिए।
उपरोक्त तकनॉलॉजी के विकास के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता ऐसे उपकरणों की है जो वांछित वस्तु की संरचना में प्रयुक्त होने वाले अणुओं एवं परमाणुओं को आस–पास के उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से पहचान कर सही मात्रा में अलग कर उन्हें नए ढंग से व्यवस्थित कर सकें। जब बात परमाणविक स्तर पर असेंब्ली की हो रही है तो जाहिर है कि ऐसे असेंब्लर्स भी उसी स्तर के होने चाहिए एवं उनमें इतनी क्षमता तथा ऊर्जा होनी चाहिए कि वे वांछित अणुओं या परमाणुओं को उपलब्ध यौगिकों से आसानी से अलग कर सकें। ध्यान रहे, ये अणु–परमाणु किसी भी यौगिक में मजबूत रसायनिक बांड से बँधे रहते है जिन्हें तोड़ कर इन अणुओं–परमाणुओं को अलग करने वाले उपकरणों के पास पर्याप्त ऊर्जा होनी चाहिए।

आखिर कैसे और कहाँ से हम ऐसे सूक्ष्म उपकरणों एवं तकनॉलॉजी को विकासित करने का सपना देख रहे हैं, जो आणविक–परमाणविक पैमाने पर उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में सहायक हो? तो उत्तर है– नैनोअसेंब्लर्स एवं नैनोटेक्नॉलॉजी।
इसे अच्छी तरह समझने के लिए सबसे पहले परमाणविक पैमाने ‘नैनोमीटर’ को जानना होगा। एक मीटर के अरबवें हिस्से को नैनोमीटर कहते हैं। यह कितना छोटा है इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमारे एक बाल की मोटाई लगभग चालीस हजार नैनोमीटर होती है या फिर एक नैनोमीटर में ३–५ परमाणु समा सकते हैं।
उल्लिखित नैनोअसेंब्लर्स का आकार भी कुछ ही नैनोमीटर्स का होना चाहिए, तभी वे इतने सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर सकते हैं।
ऐसे अतिसूक्ष्म नैनोअसेंब्लर्स के निर्माण एवं नैनोटेक्नॉलॉजी के विकास की प्रेरणा वैज्ञानिकों को संभवत: प्रकृति से ही मिली है। एक जैविक कोशिका के निर्माण, वृद्धि तथा कार्यकी में मूल रूप से डीएनए एवं आरएनए जैसे प्राकृतिक नैनोअसेंब्लर्स की ही मुख्य भूमिका है। इनका आकार कुछ ही नैनोमीटर होता है परंतु ये कोशिका की संरचना तथा विभिन्न जैवरसायनिक प्रक्रियाओं को संचालित करने वाले जटिल से जटिल प्रोटीन का निर्माण कोशिका के साइटोप्लाज्म में मौजूद एमीनो एसिड्स द्वारा करने की क्षमता रखते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में डीएनए की मुख्य भूमिका होती है। डीएनए की विशेषता यह है कि न केवल ये अपनी प्रतिकृति स्वयं बना सकते हैं बल्कि प्रोटीन निर्माण में असेंब्लर्स एवं असेंब्ली–साइट का कार्य करने वाले राइबोसोमल, ट्रांसफर तथा मेसेंजर आरएनए का निर्माण भी करने की क्षमता रखते हैं। साइटोप्लाज्म से तरह–तरह के एमीनो एसिड्स की पहचान कर उन्हें पकड़ कर असेंब्ली साइट राइबोसोम तक लाने का कार्य ट्रांसफर आरएनए करते हैं। यहाँ इन एमीनो एसिड्स को मेसेंजर आरएनए में निहित कोड के अनुसार एक निश्चित क्रम में व्यस्थित कर प्रोटीन–विशेष का निर्माण कर लिया जाता है।

नैनोटेक्नॉलॉजिस्ट कुछ–कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं। वे भी ऐसे नैनोअसेंब्लर्स का निर्माण करना चाहते हैं जो न केवल विभिन्न प्रकार के परमाणुओं की पहचान कर सकें वरंच उन्हें पकड़ कर किसी भी पदार्थ से अलग कर वांछित स्थान पर ला कर पुनव्र्यस्थित सकें। यह सब कोरी कल्पना नहीं है। १९९० में आइबीएम के अनुसंधानकर्ता एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी यंत्र द्वारा ज़ेनॉन तत्व के ३५ परमाणुओं को निकेल के क्रिस्टल पर एक–एक कर व्यस्थित कर, आइबीएम शब्द लिखने में सफल हुए। इनका यह प्रयास इस बात का द्योतक है कि हम एक अकेले परमाणु को भी अपनी इच्छानुसर नियंत्रित एवं परिचालित कर नए ढंग से व्यवस्थित कर सकते हैं।
नासा के वैज्ञानिकों ने १९९७ में सुपर कंप्यूटर द्वारा बेंज़ीन के अणुओं को कार्बन के परमाणुओं से बने किसी सामान्य अणु के आकार के अति सूक्ष्म नैनोट्यूब्स के बाहरी सतह पर जोड़ कर आणविक– आकार के यंत्र निर्माण के मिथ्याभासी अनुरूपण (simulation) में सफलता का दावा किया था। ये यंत्र लेज़र द्वारा संचालित किए जा सकते हैं। भविष्य में इनका उपयोग ‘मैटर कंपाइलर’ जैसे अतिसूक्ष्म यंत्र के निर्माण में हो सकता है। इन मशीनों को कंप्यूटर द्वारा प्रोग्राम कर प्राकृतिक गैस जैसे कच्चे माल के परमाणुओं को एक–एक कर फिर से व्यवस्थित कर किसी बड़ी मशीन अथवा उसके किसी हिस्से को निर्मित किया जा सकता है।
किसी भी उपभोक्ता वस्तु के भारी मात्रा में उत्पादन के लिए ऐसे किसी एक नैनोमशीन या नैनोअसेंब्लर से काम नहीं चलने वाला। अणुओं या परमाणुओं को एक–एक कर पुनर्व्यवस्थित कर नई वस्तु के निर्माण में तो ऐसा एक असेंब्लर हजारों साल लगा देगा। तुरंत किसी सामान को बनाने के लिए हमें अरबों एवं खरबों नैनोअसेंब्लर्स की आवश्यकता पड़ेगी। इस कार्य के किए या तो हमें दूसरे प्रकार के नैनोमशीन –‘नैनोरेप्लिकेटर्स’ की आवश्कयता पड़ेगी, जो पलक झपकते ही वांछित प्रकार के नैनोअसेंब्लर्स की अरबों–खरबों प्रतिकृतियाँ बना दें या फिर इन नैनोअसेंब्लर्स को ही हम इस प्रकार प्रोग्राम कर दें कि डीएनए की तरह ये भी आवश्यकतानुसार अपनी प्रतिकृतियाँ स्वयं बना लें। इनका आकार इतना छोटा होगा कि एक घन मिलीमीटर के क्षेत्र में ऐसे अरबों–खरबों रेप्लीकेटर्स तथा असेंब्लर्स समा जाएँगे।
ये असेंब्लर्स तथा रेप्लिकेटर्स दिए गए प्रोग्राम के अनुसार एक साथ स्वत: काम करेंगे और वांछित वस्तु की भारी मात्रा के उत्पादन में सहायक होंगे। जिस दिन ऐसा हुआ, उस दिन उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन की परंपरागत विधियों की आवश्यकता ही नहीं रहेगी और हम पहले से कहीं बहुत ही सस्ती, मजबूत, टिकाऊ एवं बेहतर कार्य क्षमता वाली उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण बहुतायत में कर पाएँगे। इस टेक्नॉलॉजी से लाभ की संभावनाएँ इतनी वास्तविक एवं आकर्षक हैं कि वर्ष २००१ में अमेरिका ने लगभग ५० करोड़ डॉलर का बजट इस दिशा में अनुसंधान हेतु प्रदान किया। आइए, देखते हैं कुछ रंगीन सपने अपने सुनहरे भविष्य के।
संभवत: इन नैनो मशीन्स की सहायता से हम और भी मजबूत फाइबर्स बना सकते हैं और बाद में तो हीरे से ले कर पानी या खाना कुछ भी बन सकते हैं। वह भी बड़े सस्ते में औैर आज की तुलना में बहुत ही थोड़े से कच्चे माल द्वारा। इन नव निर्मित सामानों की मजबूती तथा हल्केपन की तो फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए इस तकनीक से बना हीरा वांछित आकार के साथ–साथ उतने ही मजबूत स्टील की तुलना में कम से कम पचास गुना हल्का होगा तथा इसे तोड़ना एक प्रकार से असंभव होगा। जरा सोचिए, यदि आज की कार या हवाई जहाज अथवा अंतरिक्ष यान की बॉडी और उनके कल–पुर्जों का निर्माण इन फाइबर रूपी हीरों से किया जाय तो वे कितने मजबूत, हल्के, टिकाऊ तथा सस्ते होंगे? आज के बोइंग७४७ का वजन पचास गुना कम हो जाएगा। जाहिर है, सामान्य यातायात खर्च में अप्रत्याशित कमी आएगी। सूदूर ग्रहोंकी अंतरिक्ष यात्रा भी बहुत ही सस्ती हो जाएगी।
कंप्यूटर की दुनिया में तो क्रांति ही आ जाएगी। कंप्यूटर हार्डवेयर के क्षेत्र में हो रही प्रगति की रफ्तार को बनाए रखने या फिर उससे भी आगे जाने के लिए वर्तमान समय की लीथोग्राफिक तकनीकि से बनाए जाने वाले सिल्किॉन चिप्स की क्षमता अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने वाली है। नैनो टेक्नॉलॉजी की मदद से भविष्य में हम थोड़े से ही परमाणुओं का उपयोग कर, नए प्रकार के परमाणविक लॉजिक एलीमेंट तथा गेट बना सकेंगे। इन परमाणविक गेट्स की मदद से ऐसे कंप्यूटर– उपकरण बना सकेंगे, जिनका आकार चीनी के क्यूब जैसा होगा परंतु स्टोरेज क्षमता करोड़ों बाइट्स होगी तथा ये कंप्यूटर्स प्रति मिनट करोड़ों कमांड दे सकेंगे।
चिकित्सा के क्षेत्र में नैनोटेक्नॉलॉजी का सर्वाधिक असर होगा। कैंसर कोशिकाओं या वाइरस जनित असाध्य रोगों को ठीक करने के लिए रोगी को बस नैनोबॉट्स युक्त पेय की कुछ बूँदें लेनी होंगी। नैनोबॉट्स कैंसर कोशिकाओं एवं वाइरस पर आक्रमण कर उनकी आणविक संरचना को बदल कर, उन्हें निष्प्रभावी कर देंगे। एक अन्य प्रकार के नैनोबॉट्स हमारे शरीर के वृद्ध होने की प्रक्रिया को रोक सकते हैं या उससे भी आगे बढ़ कर विपरीत दिशा में मोड़ कर हमें फिर से युवा बना सकते हैं। इनसे भी अलग एक दूसरे प्रकार के नैनोबॉट्स अर्थात् ‘नैनोसर्जन’ कठिन से कठिन एवं खतरनाक ऑपरेशन आज के उपकारणों की तुलना में हजार गुना अधिक सफाई तथा कुशलतापूर्वक कर सकते हैं और वह भी शरीर पर बिना किसी दाग–धब्बे के। यही नहीं, कोशिकाओं के वर्तमान आणविक संरचना को बदल कर आँख, नाक, कान ... .. .या फिर पूरे शरीर के कायापलट के लिए भी इन्हें प्रोगा्रम किया जा सकता है।
दूसरे ढंग से प्रोग्राम कर इन नैनोबॉट्स की मदद से हम मिट्टी, पानी तथा हवा में प्रदूषण फैलाने वाले पदार्थों को मिनटों में नष्ट कर सकते हैं या फिर दिनों–दिन पतली एवं कमजोर पड़ती जा रही ओज़ोन की परत को फिर से निर्मित कर सकते हैं। भविष्य में नॉन–रिन्युवेबल रिर्सोसेज की आवश्यकता ही नही रहेगी। न पेड़ काटने की जरूरत होगी, न ही खदानों से कोयला निकालना पड़ेगा और न ही जमीन में ड्रिल कर खनिज तेल निकालने के झंझट में पड़ना होगा। ये सारी वस्तुएँ हमें नैनोबॉट्स स्वत: बना कर देंगे।
आप पढ़ते–पढ़ते थक जाइएगा और मैं बताते बताते, फिर भी नैनोटेक्नॉलॉजी द्वारा भविष्य में संभावित एवं क्रातिकारी परिवर्तनों की सूची समाप्त नहीं होगी। चलते–चलाते अब आइए जरा एक नज़र इस दिशा में आज–कल किए जा रहे प्रयासों पर डाल लें।
वैसे तो इस क्षेत्र में काफी काम हो रहा है एवं वैज्ञानिकों को छोटी–बड़ी सफलताएँ मिलती ही जा रही हैं, परंतु अब तक इनका ध्यान कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, संचार आदि से संबंधित विषयों पर अनुसंधान की तरफ ज्यादा था। हाल ही में इनका ध्यान चिकित्सा से संबंधित विषयों पर भी गया है। इस दिशा में युनिवर्सिटी ऑफ रॉचेस्टर के टॉड क्रास एवं बेंजामिन मिलर द्वारा किया गया कार्य उल्लेखनीय है। इन लोगों ने एक ऐसे डीएनए चिप्स के विकास में सफलता पाई है जिसकी सहायता से भविष्य में किसी भी रोग उत्पन्न करने वाले या जैविक हथियार की तरह इस्तेमाल होने वाले जीवाणु को तुरंत एवं सटीक रूप से पहचाना जा सकता है, जो इसके प्रभावी प्रतिकार में काफी सहायक सिद्ध होगा। फिलहाल, इस चिप्स की मदद से केवल एंटीबायोटिक्स प्रतिरोधी ‘स्टाल्फ बैक्टिरिया को ही पहचाना जा सकता है। इस बैक्टिरिया के डीएनए की उपस्थिति में इस चिप्स का रंग हरे से पीले में बदल जाता है,जिसे लेज़र की मदद से देखा जा सकता है।ये लोग भविष्य में ऐसे चिप्स के विकास में लगे हुए हैं जिनकी सहायता से किसी भी जीवाणु को आसानी से तथा तुरंत पहचाना जा सके।
ऐसे अनुसंधान नैनोटेक्नॉलॉजी की दिशा में प्रगति की ओर बढ़ते कदम अवश्य हैं, परंतु नैनो टेक्नॉलाजिस्ट्स को अपने सपनों को वास्तविक रूप में साकार करने के लिए अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना होगा। तब तक आइए हम भी ऐसे सपने देंखें। सपने देखना भी जरूरी है। जो सपने देखता है वही अपनी दृढ़ इच्छा के बल पर उन्हें साकार करने की कोशिश में सफल भी होता है। अट्ठारवीं तथा उन्नीसवीं सदी के मानव ने क्या कभी टीवी, मोबाइल या फिर कंप्यूटर तथा इंटरनेट की वास्तविकता के बारे में सोचा था? नहीं न? आज ये सभी वास्तविकताएँ है। हमारे उपरोक्त सपने भी कल निश्चय ही सच होंगे।